छूट जाता है
भले कुछ भी हो, तेरा या हमारा, छूट जाता है
के बस पलकें झपकती हैं, नज़ारा छूट जाता है
जिसे पाने की ख़ातिर तुम दिन-ओ-शब एक करते हो
वही इक रोज़ फ़िर सारे-का-सारा छूट जाता है
किसी भटकी हुई कश्ती से पूछो मौज की वहशत
भला नज़दीक से कैसे किनारा छूट जाता है
ज़ियादा बात करने के भी अपने कुछ मसाइल हैं
ज़ियादा बात सुनिए तो इशारा छूट जाता है
हक़ीक़त ये है के हम तब खड़े होते हैं पैरों पर
हमारे हाथ से जब हर सहारा छूट जाता है
हम अपने आप से बाहर निकल कर चल तो दें लेकिन
हमारे ज़ेहन में कोई हमारा छूट जाता है