भला ऐसा कोई इंसान है?

जिसको सब चाहें, भला ऐसा कोई इंसान है?
हर किसी पर इक न इक छोटा-बड़ा इल्ज़ाम है!

जीतना या हार जाना दो अलग चीज़ें नहीं
जीत, हारी बाज़ियों का आख़िरी अंजाम है

हर हक़ीक़त का कोई मंजर नहीं होता मगर
हर हक़ीक़त ख़ुद-बा-ख़ुद इक सिलसिले का नाम है

लोग ख़्वाहिश के लिए क्या-क्या नहीं करते जनाब?
इश्क़ तो दुनिया में यूँ ही खामखाँ बदनाम है!

आदमी को चाहिए – लत से ज़रा दूरी रखे
आदतों को पालने में भी बड़ा नुकसान है

चाहतें, फ़िर मस’अले, फ़िर रंजिशें, फ़िर दूरियाँ
खेलना आ जाए तो ये ज़िंदगी आसान है


(मस’अले: problems)

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Ravi Prakash Tripathi
Research Associate

A Ph.D. fellow working on “Security in Socio-industrial Metaverse” who could often be found somewhere messing up with bugs & vulnerabilities, contributing to open source or writing poems.

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