दिलों को जोड़ पाना दस्तरस की बात थोड़ी है

दिलों को जोड़ पाना दस्तरस की बात थोड़ी है
ये अपना इल्म है कुछ कश्मकश की बात थोड़ी है

यहाँ कोई ज़ेहन की क़ैद से बाहर नहीं आता
यहाँ ख़ुद से रिहा होना कफ़स की बात थोड़ी है

हम ऐसे लोग दुनियाँ को भला कब रास आते हैं
हम ऐसों को समझना सबके बस की बात थोड़ी है

उफ़नते दरिया को थमने में ख़ासा वक़्त लगता है
ये हाल-ए-दिल-बयानी इक नफ़स की बात थोड़ी है

तकाज़ा वक्त का तश्बीह है खामोश हो जाएं
कि अब सुनने की कम और पेशकश की बात थोड़ी है


(दस्तरस: access, expertise)
(कफ़स: cage, trap)
(हाल-ए-दिल-बयानी: expressing the condition of the heart)
(नफ़स: breath)
(तश्बीह: indicator)

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Ravi Prakash Tripathi
Research Associate

A Ph.D. fellow working on “Security in Socio-industrial Metaverse” who could often be found somewhere messing up with bugs & vulnerabilities, contributing to open source or writing poems.

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